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कविता

धुँधलाई किरन

प्रेमशंकर मिश्र


सुबह-सुबह
ज्‍योंही दरवाजा खोला
एक भारी पूरी मोटर
सामने से गुजर गई;
सोने की नरम-नरम किरनें
धुँधला गईं

और मैं
सपनो की मुरझाई खुशबू से
नाक बंद किए
अब भी इस उम्‍मीद पे जिंदा हूँ
कि
रोज की तरह
आज भी
पोर्टिको से लेकर सब्‍जजीमंडी तक
फावड़ों से लेकर फाइलों तक
इसी तरह हजारों मोटरें
मेरा पीछा करेंगी

और मैं
भोर के इस अपशकुन के बावजूद
रोज की तरह आज भी
दिन भर दामन बचाता
गिरहें लगाता
दरबे तक जरूर पहुँच जाऊँगा।
फिर नए तारे जोड़ूँगा
नई लौ जलाऊँगा
चाँद को मनाऊँगा
नई सुबह लाऊँगा
साथ दो।


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